मैं जब पैदा हुआ तो चारों ओर सपने ही सपने थे, लेकिन सपने तो सपने होते हैं, वो कभी अपने नहीं होते। आज मैं 24 साल के बाद भी सड़क पर हूँ क्योँकि मैं उत्तराखण्ड हूँ। मुझे खुद पता नहीं कि 24 साल का उत्तराखंड आज किस रास्ते पर चल पड़ा है जिसके बारे में न किसी पहाड़ी को पता है और न मैदानी,को, न गढ़वाली को और न कुमाउनी को , न राजपूतों को और न ब्राह्मणों को , तो आखिर आँचल से पैदा हुआ ये उत्तराखंड किस ओर चल पड़ा है?
नित्यानंद स्वामी से लेकर धाकड़ धामी तक के इस सफर में मुझे कही भी कोई भी अपना ऐसा नहीं मिला जिसने उत्तराखण्ड को नहीं लूटा । हाँ मेरे साथ मेरे वो बच्चे जरूर थे वो बच्चे जिन्होंने इस पहाड़ी राज्य के लिए अपना सर्वस्व निछावर किया था । जिन्होंने खटीमा, मसूरी गोलीकाण्ड, मुजफ्फरनगर गोलीकाण्ड,देहरादून गोलीकाण्ड, नैनीताल गोलीकाण्ड, श्रीयंत्र टापू काण्ड में अपने प्राणों की आहुति दी। कोई भी आंदोलन बगैर आहुति के पूर्ण नहीं होता। इस आंदोलन और राज्य से एक बात की आशा थी कि अपना जल जंगल और जवानी हमेशा पहाड़ों में बनी रहेगी। लेकिन हुआ ठीक उल्टा।
आंदोलन ख़त्म हुआ और मुझे उत्तराँचल नाम मिला , बीजेपी ने मेरे ऊपर नित्यानंद को थोप दिया , तब से आज तक में छटपटा रहा हूँ लेकिन, जो आज की परिस्थितिया हैं मुझे नहीं लगता कि में देवभूमि का सरताज रह पाऊंगा । में देख सकता हूँ कि मैंने अपने बच्चों को खोना शुरू कर दिया है, एक एक करके गांव खाली होते जा रहे हैं , राज्य बनने के बाद में लगातार अपने बच्चो और गावों को खो रहा हूँ। मेरे 968 गांव अब निर्जन हो चुके हैं, हर पांच साल बाद लगता है कि कोई न कोई तो आएगा जो मुझे और मेरे अंदर की पीड़ा को जानेगा , काश वो दिन जल्द आ जाये।
एक एक करके 24 साल गुजर गए लेकिन मेरे पास 24 ऐसी उपलब्धियां नहीं है जिन्हें में आपको बता सकूँ , में आज भी देहरादून में किराये के मकान में हूँ, गैरसैण तो अब वास्तविक तौर पर गैर हो गया है। जल जंगल और जवानी की लड़ाई ख़त्म हो गई है। मेरे बच्चों के साथ अपराध इतना बढ़ गया है कि वो नशे की पौध बन चुके हैं , अपराधी खुलेआम लूट की बारदातों को अंजाम दे रहे हैं। मेरे औद्योगिक प्रतिष्ठान लगातार बंद होते जा रहे हैं , शिक्षा और स्वस्थ्य के नाम पर लूट मची हुई है , न अध्यापक हैं और न डॉक्टर्स , मेरी बेटियों को जंगलों और सड़कों पर बच्चों को जन्म देना पढ़ रहा है। आखिर में कैसा उत्तराखण्ड हूँ।
मेरे बच्चे देश विदेश में में तो बहुत नाम कमा रहे हैं लेकिन उनका मेरे प्रति असंवेदनशील होना मुझे काटता है। अपने बंजर पड़े घरों, खेतों , खलियानो को जब देखता हूँ तो लगता है उत्तर प्रदेश ही अच्छा था। मुझे अपनों ने ही घेर लिया है तो में बाहरी को क्या कहूं।
मेरे अपनों ने ही मेरा दोहन शुरू किया और आज मेरे माथे पर लगा मुकुट लगातार सिकुड़ता जा रहा है, मेरा श्रृंगार (बर्फ) लगातार ख़त्म होता जा रहा है , मेरे चारों धाम हर साल कूड़े से पटे रहते हैं , मेरे कस्तूरी मृग अपने अरण्य को छोड़कर न जाने कहाँ चले गए हैं ,मेरे मोक्ष धाम को को रील धाम बना दिया गया है’ महाकाल ने अपना स्वरुप भी दिखाया लेकिन सबक नहीं सीखा , भगवान नृसिंह की भूमि डगमगा रही है, लेकिन किसी को उसकी चिंता नहीं। में कहूं तो क्या कहूं जब मेरे ही अपने पराये हो गए हैं।
मुझे विरासत में 1,750 करोड़ का घाटा मिला था जो आज 80,000 करोड़ तक जा पहुंचा है, मेरे बच्चों को मेरे प्रदेश मै नौकरी नहीं मिल रही है जबकि अन्य राज्यों के लोगों को यहाँ खुलेआम नौकरी मिल रही है। मेरे ऊर्जा प्रदेश का सपना सपना ही रह गया है , आज हाल ये है कि में दिल्ली पर आश्रित हूँ। सड़कों का हाल ये है कि इस 24 साल के यात्राकाल में मैने अपने 24 हजार से अधिक बच्चों को खोया। सोचो मैने २४ साल में क्या पाया , आशा करता हूँ 25वे साल में कुछ पा जाऊं। इसी आशा के साथ आपका उत्तराखंड।