मैं अपने आपको यह समझा पाने में असमर्थ पा रहा हूं कि चैनल आखिर इन लोगों को बुलाते ही क्यों हैं?
देहरादून 17 दिसंबर। देश का मीडिया पिछले 9 सालों से जिस प्रकार से जनता के प्रमुख मुद्दों को छोड़कर एकतरफा राग अलाप रहा है , उसमे अगर कुछ अलग सा दिखाई दे तो हर किसी का स्तब्ध होना स्वाभाविक है , ऐसा ही कुछ उत्तराखंड में पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत के साथ हुआ, जिसके बाद उन्होंने अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म फेसबुक पर मीडिया के लिए भड़ास निकाली उन्होंने फेसबुक पर लिख डाला बड़ा से लेख।
कल रात एबीपी न्यूज़ चैनल पर बेरोजगारी पर बहस सुनकर ऐसा आभास हुआ जैसे जून की तपती दोपहरी में आसमान ने ढेरों पानी बरसा दिया हो, आजकल न्यूज़ चैनलों में बहस का मुद्दा आर्टिकल 370 और जवाहरलाल नेहरू या कृष्ण जन्मभूमि ईदगाह सर्वेक्षण, इन दोनों विषयों पर जो बहसों का स्तर है और एंकर महोदयान की जो भूमिका रहती है उससे साफ लगता है कि आने वाले समय में सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक असहिष्णुता और आगे बढ़ेगी।
अभी 24 अक्टूबर की सड़क दुर्घटना से मैं ठीक तरीके से उभर नहीं पाया हूं, ठंड में पांच, साढ़े पांच बजे के बाद बाहर खुले में रहना बड़ा कठिन हो गया है और कमरे में बैठ कर कुछ देर अखबार के पन्ने पलटता हूं, फिर कुछ लेखन का कार्य या पुस्तक पाठन का काम करता हूं और फिर अनंतोगत्वा मुझे खाना खाने से लेकर रात 10 बजे सोने के लिए बिस्तर पर जाने तक जो समय बचता है उसका उपयोग टीवी चैनल देख कर करता हूं। यह सत्यता है कि मैंने कई जगह टीवी चैनलों की डिबेट में भाग लिया है, कभी गला फाड़कर मोर्चा भी लगाया है, लेकिन अब टीवी चैनलों की बहस में एंकर ही सब कुछ करते हैं और कहते हैं। बाकी सत्ता पक्ष के अलावा अन्य की भूमिका तो बिन बुलाए मेहमान जैसी दिखाई देती है।
धारा 370 की समाप्त के केंद्र सरकार के निर्णय को माननीय सुप्रीम कोर्ट ने संविधान सम्मत बताया। माननीय सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय को कमोवेश कुछ ने खुली जवान से तो कुछ ने कुछ सहमति जताते हुए स्वीकार किया है। यहां तक की कश्मीर के राजनीतिक संगठनों ने भी इस भाव से चुप्पी साध ली है कि क्या करें माननीय सुप्रीम कोर्ट का निर्णय है और इसमें कोई शक नहीं कि किसी भी राजनीतिक दल ने कभी कुछ भी कहा हो मगर संविधान सभा ने धारा 370 को एक स्थाई प्रोविजन के रूप में स्वीकार किया था और इसको समाप्त करने का अधिकार भी संसद को ही है। यह भी तथ्य है इस धारा के अस्तित्व में आने के बाद से लगातार इसके प्रभाव और व्यापकता को नेहरू सरकार से लेकर सभी सरकारों ने काम किया है और धीरे-धीरे यह धारा संविधान की धारा 371 के तहत जो विशेष अधिकार नॉर्थ ईस्ट के राज्यों यहां तक की उत्तराखंड में जौनसार के लोगों को प्राप्त हैं यह धारा वहीं तक सीमित रह जाती है। मगर भाजपा का यह एक राजनीतिक नारा था और उन्होंने उस नारे को पूरा कर दिया। मगर इस मामले में बहस के दौरान एंकर महोदय खोद-खोद कर ऐसे सवाल उठा रहे थे, जिससे यह सिद्ध हो जाए कि कश्मीर की सारी समस्या धारा 370 लागू करने से पैदा हुई है और धारा 370 के लिए श्री नेहरू जी का फितूर उत्तरदाई था। धारा 370 दफन हो गई लेकिन एंकर महोदय चीख-चीख कर आपके, हमारे मस्तिष्क में भरसक पंडित जवाहरलाल नेहरू को कश्मीर समस्या का अपराधी सिद्ध कर देना चाहते हैं।
दूसरा विषय :”अब मथुरा की बारी”
ऐसा लगता है कि हमारे इन चैनलों और एंकर महोदय को बड़ा पसंद का मिल गया है और वो है “अब मथुरा की बारी” मतलब माननीय हाई कोर्ट ने मथुरा के के ईदगाह के मामले में जो सर्वेक्षण के आदेश दिए हैं उसको लेकर ऐसा लगता है कि सुप्रीम कोर्ट का फाइनल निर्णय आने से पहले चैनल इस बात को घोषित कर देना चाहते हैं कि अब मथुरा में जो हिंदू पक्ष का दावा है, वह मान लिया गया है। विडंबना यह है कि इन डिबेट्सों में चैनल चुनिंदा ऑडियंस बैठाती है लगभग कई चेहरे तो ऐसे हैं जो वर्षों से उनके डिबेट्स में बुलाए जाते हैं और उनको मालूम होता है उनको क्या करना है और पक्षकार के रूप में जिनको गेस्ट के रूप में बुलाया जाता है इनमें वो मुस्लिम भाई जो वेशभूषा से मुस्लिम लगने चाहिए वो बुलाए जाते हैं, एक साधु महात्मा वेशधारी विराजमान होते हैं और दो ऐसे लोग एक भाजपा के सक्रिय प्रवक्ता और एक अघोषित प्रवक्ता बैठाए जाते हैं।
विशेषज्ञ के तौर पर भी ऐसे ही व्यक्ति को बैठाया जाता है जो भाजपा पक्ष की वकालत कर सके। विपक्ष की ओर से कभी कोई मिल जाए तो ठीक है नहीं तो उनके बिना भी काम चला लिया जाता है। कश्मीर में गुलाम नबी आजाद जी की पार्टी के व्यक्ति को बुलाया गया था और एलायंस के तरफ से भी एक व्यक्ति को बुलाया गया था। मुस्लिम वर्ग की तरफ से जिन लोगों को बुलाया जाता है उनसे पहले तो सवाल ही ऐसे पूछे जाते हैं जो उनके लिए उत्तर देना कठिन हो या जिसके दो अर्थ निकाले जाएं और यदि व फिर भी बच के सही उत्तर दे देते है या कोई तर्कपूर्ण बात कहने लगते है तो मुझे ये देखकर आश्चर्य हुआ कि पहले उनको टोका जाता है या बहस को किसी और को सौंप दिया जाता है या जो संत होते हैं उनका इंटरवेंशन आमंत्रित कर लिया जाता है ताकि मुस्लिम वर्ग की तर्कपूर्ण बात को लोग न सुन सकें और यदि कभी कोई जिद करके अपनी बात कहने ही लगता है तो उनको डपट दिया जाता है और यही सब कुछ एंकर महोदय, विपक्ष का प्रतिनिधित्व कर रहे प्रवक्ता के साथ भी करते हुए दिखाई देते हैं, ज्यों ही उनकी बात किसी तर्क संकट मोड़ पर आती है उन्हें रोक दिया जाता है और बात को दूसरा मोड़ दे दिया जाता है।
मैं अपने आपको यह समझा पाने में असमर्थ पा रहा हूं कि चैनल आखिर इन लोगों को बुलाते ही क्यों हैं? क्या आवश्यक है इस बहस ग्राह्य बनाने के लिए इसमें सभी प्रकार के चेहरे दिखाई दें और यदि आवश्यक है तो फिर ऑडियंस ने क्या बिगाड़ा है उन्हें सबके मत नहीं सुनने दिए जाते हैं। हां, मैं भारतीय संस्कृति के लिए आवाज उठाता हूं, मैं भारतीय अखंडता और एकता के लिए आवाज उठाता हूं, एंकर महोदय यह जताने की कोशिश करते है कि जैसे दूसरे जो लोग वहां पर बैठे है उनकी बात का कोई तर्कपूर्ण उत्तर उनके सवाल का जवाब देने की कोशिश कर रहे हैं वो राष्ट्रभक्त नहीं हैं, भाजपा के प्रवक्ता और अघोषित प्रवक्ता के प्रति तो एंकर महोदय बहुत ही उदार रहते हैं वो जो चाहें कह सकते हैं और अनंतोगत्वा चैनल से यह घोषित कर दिया जाता है कि पहले अयोध्या, फिर काशी मथुरा की बारी है श्री राम लला अयोध्या में विराजमान हो रहे हैं और आगे काशी और मथुरा की बारी है, और बलपूर्वक यह आभास देने का प्रयास किया जाता है कि भारतीय मुसलमान या जो कोई व्यक्ति सहिष्णुता और सद्भावना की बात कर रहा है वह व्यक्ति औरंगज़ेब का प्रतिनिधि है। मुझे यह देखकर बड़ा दुःख हुआ कि मुस्लिम गेस्ट को बार-बार यह कहना पड़ रहा था कि हमारा औरंगजेब से कोई नाता नहीं है, उनकी बात तर्कपूर्ण भी है क्योंकि मंदिरों को जिन्होंने भी नुकसान पहुंचा वह आक्रांता थे उनकी मानसिकता दमन की थी।
आज का प्रत्येक भारतवासी चाहे वह हिंदू हो, मुसलमान हो, सिख हो, इसाई हो जैन हो, बौद्ध हो, पारसी हो सब एक हिंदुस्तानी हैं। किसी का नाता आक्रमणकारियों के साथ नहीं है। यूनानी शख, मंगोल, हूंण, मुगल, अफगानी जो भी इस धरती पर आए वह लुटेरे थे उन्होंने पराजित राजा के प्रत्येक विश्वास स्थल को नष्ट किया। औरंगजेब ने भी वही कृत्य जब दोहराया, उसका घृणित कृत्य ही मुगल शासक के पतन का कारण बना, फिर कोई यह नहीं बताता कि आज के भारत में से कौन लोग ऐसे हैं जो इन आक्रांताओं के वंशज हैं। आज तो सब वही हैं जिनके वंशज कुछ पीढ़ियों पहले तक सनातनी थे। औरंगजेब के कृत्य के लिए उन्हें नीचा दिखाना निंदा पूर्ण है। यदि कोई तर्कपूर्ण बात उठा देता है जैसे अयोध्या राम जन्म भूमि के प्रकरण में मुस्लिम पक्ष कहता है कि हमने सुप्रीम कोर्ट के आदेश को माना है, उसको स्वीकार किया है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने टाइटल डीड पर फैसला नहीं दिया है और सुप्रीम कोर्ट ने यह भी साफ कहा है कि आर्कलॉजिकल सर्वे में कोई ऐसा प्रमाण नहीं मिला है जिससे यह सिद्ध हो कि मंदिर तोड़कर के ये मस्जिद बनाई गई है, ये फैसला आस्था के प्रश्न पर हुआ है और हमने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को माना है। उनका कहने का उद्देश्य ये होता है कि सुप्रीम कोर्ट हमारे विश्वास की भी रक्षा करे, सुप्रीम कोर्ट के विश्वास का अर्थ है भारत के संविधान पर विश्वास आखिर एक पक्ष जो कमजोर पड़ रहा है उसका संरक्षक तो संविधान ही होगा न, उसके रक्षक के रूप में तो सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे पर ही जायेंगे लेकिन एंकर महोदय उन्हें डपट देते हैं और उनको चुप्पी साधनी पड़ती है। कश्मीर के मामले में मैं दो-तीन दिन से देख रहा हूं जब से संसद की सुरक्षा में सेंध लगी है, जबसे राष्ट्रीय सुरक्षा का गंभीर प्रश्न खड़ा हुआ है, तब से धारा 370 फिर से जीवांत रूप में चैनलों में छा गया है, ताकि लोगों का ध्यान संसद की सुरक्षा में लगी सेंध पर न जाय, उसके लिए कौन जिम्मेदार है यह सवाल बहस का मुद्दा न बने और बहस फिर से धारा 370 की ओर लाने का प्रयास किया जा रहा है और हर मुमकिन कोशिश हो रही है कि धारा 370 के लिए श्री जवाहरलाल नेहरू को खलनायक सिद्ध किया जाए।
भाजपा करे तो समझ में आता है लेकिन प्रश्न यह है कि इस काम को मीडिया के एक बड़े हिस्से ने अपने ऊपर ले लिया है। बहस में मैं देख रहा था कि श्री गुलाम नबी आजाद की पार्टी के प्रवक्ता ने कहा कि धारा 370 समाप्त करते वक्त तीन लक्ष्य बताए गए थे आतंकवाद की समाप्ति व कश्मीरी पंडितों की पुनः घर वापसी उनको अपनी बात कहने भी नहीं दी गई, बहस में शामिल कश्मीरी पंडित को मौका देकर उनसे कांग्रेस और नेहरू पर ढेर सारे आरोप लगवाए गए। बहस के दौरान न एंकर महोदय, न सरकारी पक्ष घोषित हो या अघोषित कि कश्मीर में सेना पर हमले क्यों नहीं रूक रहे हैं, यह बताने को तैयार नहीं हैं। कर्नल, मेजर, डीएसपी, कैप्टन आदि जवान मारे जा रहे हैं आखिर यह सिलसिला कब रुकेगा? कश्मीरी पंडित अब भी वही हैं जहां धारा 370 की समाप्ति से पहले थे उनकी अब भी टारगेट किलिंग हो रही है। मगर बहस का उद्देश्य आतंकवाद की समाप्ति नहीं है बल्कि नेहरू को देश की नई पीढ़ी के दिमाग में एक विलन के रूप में खड़ा करना है।
माननीय प्रधानमंत्री जी से लेकर गृहमंत्री और आरएसएस और अब कुछ महान चैनल इस काम में जुटे पड़े हैं। इतिहास के तथ्यों और तिथियों को कोई कैसे बदल सकता है! यह ऐतिहासिक सत्यता है कि अमेरिका और ब्रिटेन के दबाव में तत्कालीन महाराजा कश्मीर विलय पत्र को लेकर असमंजस में थे, उनको सपना दिखाया जा रहा था कि कश्मीर भी एक न्यूट्रल स्वीटजरलैंड बन सकता है। एक तरफ माउंट बेटन महाराजा को उकसा रहे थे तो दूसरी तरफ कश्मीर में कव्वालियों के वेश में पाकिस्तान सेना के घुस आने पर सेना को वहां भेजने की अनुमति नहीं दे रहे थे, नेहरू जी और पटेल जी से कह रहे थे कि महाराज का पत्र लाओ। जब पाकिस्तान ने इस असमंजस का फायदा उठाकर के आक्रमण कर दिया, महाराजा की सेना मोर्चे से हट गई तथा पाकिस्तानी क़व्वाली जब श्रीनगर में घुस आए और श्रीनगर का पतन निश्चित हो गया, तब महाराज ने विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए और उसके दूसरे दिन ही नेहरू-पटेल ने श्रीनगर में भारतीय सेना उतार दी। फोर्थ कुमाऊं रेजीमेंट को श्रीनगर हवाई अड्डा और श्रीनगर बचाने का सौभाग्य मिला और यह भी ऐतिहासिक तथ्य है कि कश्मीर की जनता विशेष तौर पर किसान जो शेख अब्दुल्ला की पार्टी के थे उन्होंने श्रीनगर को पाकिस्तान के हाथों में पड़ने से बचाया और इस भूमिका को सरदार पटेल जी ने भी स्वीकार किया था।
एक सवाल बड़े सिद्धत से उठाया जाता है कि जब हमारी सेना आक्रामक तरीके से मुकाबला कर रही थी तो युद्धविराम की जरूरत क्या थी? कश्मीर उन ताकतों जिन ताकतों ने हमको वर्षों-वर्षों तक गुलाम बना कर रखा वो ताकते एक मजबूत भारत नहीं चाहती थी, उन ताकतों ने ही भारत का षड्यंत्र पूर्वक विभाजन करवाया। मोहम्मद अली जीना और मुस्लिम लीग को उकसाया, हिंदू महासभा के लोगों को उकसाया, देश के वातावरण को घृणा और नफरत से भरा गया तो दूसरी तरफ उन्होंने प्यादे के तौर पर उन ताकतों के हाथ में हैदराबाद के निजाम और जूनागढ़ का नवाब था। एक पूर्वी पाकिस्तान की तर्ज पर हैदराबाद की रियासत को देश बनाना चाहता था तो जूनागढ़ का नवाब पाकिस्तान में मिलना चाहता था। सरदार पटेल जन आंदोलन के जरिए जूनागढ़ और हैदराबाद का समाधान ढूंढ रहे थे। देश में चारों तरफ विभाजन कारी हिंसा का वातावरण था। ऐसे समय में इंग्लैंड और अमेरिका, दोनों युद्ध विराम के लिए दबाव डाल रहे थे। ब्रिटेन सैन्य हस्तक्षेप की धमकी दे रहा था, स्थिति से बचने के लिए पंडित नेहरू की सरकार ने युद्ध विराम का निर्णय लिया और यूनाइटेड नेशन पहुंचे।
यह ऐतिहासिक तथ्य है कि पंडित जवाहरलाल नेहरू एक संवैधानिक लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष, गुटनिरपेक्ष भारत के लिए कश्मीर को भारत के अविभाज्य हिस्से के रूप में देखे थे। इंग्लैंड के शासक विशेष तौर पर चर्चिल इस बात को सिद्ध करना चाहते थे कि हिंदू-मुसलमान दो अलग-अलग राष्ट्र हैं, वह एक देश के रूप में नहीं रह सकते हैं। पंडित नेहरू 95% मुस्लिम आबादी वाले कश्मीरी क्षेत्र को भारत में सम्मिलित करवाकर चर्चिल और ब्रिटेन के इस सिद्धांत को झुठलाना चाहते थे, उस समय देश के अंदर कुछ हिंदूवादी संगठन भी इसी मानसिकता पर काम कर रहे थे और इस सोच को आगे बढ़ाने में शेख अब्दुला ने उनका साथ दिया।