उत्तराखंड को सबसे बड़ा खतरा प्लास्टिक के कूड़े से है।
राकेश चंद्र
हिमाचल की तर्ज पर पर्यावरण और प्रदूषण से उत्तराखंड को बचाने के लिए राज्य सरकार एक नई पहल की शुरुआत करने जा रही है,आशा है कि नए साल में उत्तराखंड की ग्रीन सेस पालिसी सड़क पर उतर जाएगी । इस पालिसी के तहत अन्य राज्यों से उत्तराखंड आने वाले निजी वाहनों पर अब ग्रीन सेस लगाया जाएगा। यह पहल प्रदेश के बढ़ते पर्यावरणीय दबाव को कम करने और हरित परियोजनाओं के लिए आर्थिक संसाधन जुटाने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम मानी जा रही है।
पालिसी के तहत दूसरे राज्यों से उत्तराखंड में प्रवेश करने वाले निजी वाहनों से 20 रुपये से लेकर 80 रुपये तक का शुल्क वसूला जाएगा। यह शुल्क वाहन के प्रकार और आकार के आधार पर तय किया जाएगा. हालांकि, स्थानीय निवासियों और आवश्यक सेवाओं में लगे वाहनों को इस दायरे से बाहर रखा जाएगा। परिवहन विभाग ने बताया है कि दुपहिया इलेक्ट्रिक और सीएनजी वाहन, एंबुलेंस, और अन्य आवश्यक सेवाओं में उपयोग किए जाने वाले वाहनों को ग्रीन सेस से मुक्त रखा जाएगा। .संभावना है कि ग्रीन सेस को जनवरी से शुरू कर दिया जाएगा। पर्यावरण से जुड़े लोग प्रदेश सरकार की इस योजना को सकारात्मक कदम मानते हैं, जबकि कुछ वाहन मालिक इसे अतिरिक्त वित्तीय बोझ के रूप में देख रहे हैं।
निःसंदेह योजना अच्छी है, लेकिन सवाल ये है कि क्या नीति निर्धारकों को ये पता है कि उत्तराखंड के जिन प्रवेश द्वारों कोटद्वार ,रुड़की , हरिद्वार , काशीपुर , हल्द्वानी पर ग्रीन सेस लिया जाएगा, इन मार्गों से पर्यटकों के अलावा प्रतिदिन हजारों की संख्या में उत्तराखंड के मूल निवासी उत्तर प्रदेश , दिल्ली , हरियाणा , हिमाचल व राजस्थान से आते हैं, इनमें अपनी कारों से आने वाले पहाड़ी लोगों की संख्या ज्यादा होगी और खासकर गर्मियों में । ऐसे में अगर उनसे उनके गांव जाने के लिए ग्रीन सेस लिया जाता है तो हितों का टकराव तय है। क्योँकि ज्यादातर वाहन दिल्ली , यूपी और हरियाणा व राजस्थान नंबर के हो सकते हैं। जबकि उसमें सफर करने वाले लोग उत्तराखंड के होंगे। क्या नीति निर्धारक ये तय करेंगे कि अगर वाहन में उत्तराखंड मूल का व्यक्ति सफर कर रहा है, या वाहन का मालिक उत्तराखंड मूल का निवासी है तो उसे छूट मिलेगी। क्या इसके लिए उनसे उत्तराखंड का कोई अधिकारिक दस्तावेज माँगा जाएगा, जिससे वे साबित कर सकें कि वे उत्तराखंड अपने मूल निवास जा रहे हैं?
प्रदेश में अभी तक सिर्फ भारी वाहनों से सेस लिया जाता है अन्य वाहनों को इसमें शामिल नहीं किया गया था। रिपोर्ट्स के मुताबिक अभी तक ग्रीन सेस से तकरीबन 60 करोड़ रुपये वसूला जाता है , लेकिन अब अन्य वाहनों के शामिल हो जाने के बाद उत्तराखंड को 150 करोड़ से ज्यादा का राजस्व प्राप्त होगा । सवाल ये है कि 60 करोड़ की उगाही के बाबजूद क्या उत्तराखंड में प्रदूषण और पर्यावरण पर कुछ प्रभाव पड़ा ?
सवाल ये भी है कि जो राज्य सरकार कोर्ट के आदेश के बाबजूद भी पॉलीथीन पर बैन न लगा पाई वो क्या150 करोड़ की कमाई के बाद प्रदूषण और पर्यावरण को बचा पाएगी ? पालिसी से किसी को इंकार नहीं है जरुरत इस बात की है कि इस मद से अर्जित धनरशि का सही से उपयोग प्रदूषण और पर्यावरण को बचाने के लिए हो।
उत्तराखंड में हर रोज लगभग 500 टन प्लास्टिक कचरा निकलता है। इतनी बड़ी मात्रा में कचरे के निस्तारण के लिए स्थानीय निकायों के पास संसाधन नहीं हैं और कंपनियां अपनी जिम्मेदारी समझने को तैयार नहीं। इसके चलते प्रदेश के तमाम क्षेत्रों में प्लास्टिक कचरा पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहा है। क्या सरकार ग्रीन सेस से इस प्लास्टिक कूड़े का निस्तांतरण या फिर प्लास्टिक वेस्ट को ख़त्म कर पाएगी?
अकेले चारधाम यात्रा की अगर बात करें तो साल 2022 में 13.2 टन कचरा निकला गया था 2023 में यह 19 टन और वर्ष 2024 में 27 टन पहुंच गया। उत्तराखंड को सबसे बड़ा खतरा प्लास्टिक से है। पिछले 24 साल में प्लास्टिक का कचरा लगभग दो गुना हो चुका है , इनमें सबसे ज्यादा प्लास्टिक कचरा देहरादून , हरिद्वार , रुड़की , हल्द्वानी, श्रीनगर , नैनीताल जैसे शहरों से निकलता है।
आज हाल ये है कि गांव-गांव में प्लास्टिक पहुंच चुका है, लेकिन प्लास्टिक वेस्ट मैनेजमेंट एक्ट 2013 में दी गई व्यवस्थाओं के तहत गांवों में इसका निस्तारण नहीं हो पा रहा है । 2022 में एक जनहित याचिका पर उत्तराखंड हाईकोर्ट ने प्रदेश सरकार को गांवों को प्लास्टिक से मुक्त बनाने के निर्देश दिए थे, लेकिन नतीजा जगजाहिर है। आशा है नीति निर्धारक ग्रीन सेस लगाने से पहले इन बातों पर ध्यान देंगे।