राकेश डंडरियाल
प्रदेश में सशक्त भू कानून, मूल निवास 1950 और धारा 371 की मांग को लेकर विभिन्न संगठन कल यानि 24 दिसंबर को देहरादून के परेड ग्राउंड में एकत्रित होकर सरकार को एक बड़ा संदेश देने जा रहे हैं। मुख्यमंत्री धामी खुद मानते हैं कि सरकारी जमीनों पर अवैध कब्जे हो रहे हैं। बाहरी लोग आकर यहां बेरोक टोक बसते जा रहे हैं,जिससे देवभूमि की संस्कृति प्रभावित हो रही है। ये बात हम नहीं खुद मुख्यमंत्री धामी कई मंचो पर कह चुके हैं, लेकिन वही सख्श इन्वेस्टमेंट के नाम पर खुला खेल खेल रहा है। मुख्यमंत्री धामी इन्वेस्टमेंट के नाम पर बड़े बड़े वादे कर चुके हैं लेकिन अगर सशक्त भू कानून लागू करते हैं तो राज्य में इन्वेस्टमेंट रुक सकता है , और नहीं करते तो जनता आमने सामने है।
उत्तराखंड राज्य को बने हुए 23 साल हो गए हैं, आजतक न तो असली राजधानी मिली है और न ही पहाड़ियों को मजबूत भू-कानून। नकली राजधानी से काम चल रहा है, और रहा भू कानून, तो अगर यह लागू हो गया तो नेताओं की दुकाने बंद हो जायेंगी। सच बोलें तो इसके लिए उत्तराखंड की ही जनता दोषी है , जो यह विश्वास करती रही कि बीजेपी और कांग्रेस उसका भला करेंगे , लेकिन 23 साल में केवल धोखे पर धोखा ही जनता के हाथ लगा है। अब एक बार युवाओं के हाथों में नेतृत्व है, लेकिन शातिर पार्टियों ने भी अपना खेल शुरू कर दिया है , वो कैसे हम बताते हैं आपको, उत्तराखंड भाजपा कल यानि 24 दिसंबर से युवा यात्रा निकाल रही है, यानि दो फाड़, फुट डालो और राज करो भाजपाई तो इस रैली में शामिल होंगे नही, और होंगे भी क्यों, जिम्मेवारी उनके कंधो पर है।
दूसरी तरफ मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने एक शॉर्टकट रास्ता निकाला है, उन्होंने भी भू कानून समिति का गठन कर पत्र जारी कर दिया है , तथाकथित पत्र में न तो ये बताया गया है कि कमेटी कब अपना काम पूरा करेगी और न ही इसमें जनता के प्रतिनिधियों को शामिल किया गया है। साफ़ है ये आंदोलन को दिग्भर्मित करने का मुख्यमंत्री ने रास्ता चुना है। भाजपा का मजबूत प्रचार तंत्र आम जनमानस को इस चिट्ठी के जरिए बरगलाने का पूरा प्रयास करेगा। ये वही मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी हैं जिन्होंने अपने पिछले कार्यकाल में भू-कानून के अध्ययन एवं परीक्षण के लिए उच्च स्तरीय समिति गठित की थी। उस समिति ने सितंबर में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी थी, समिति ने भू-कानून में संशोधन और नियमों को सख्त बनाने की संस्तुति की है। लेकिन अब एक और कमेटी बन गई है, यानि कमेटी पर कमेटी।
उत्तराखंड में पहली बार 2002 में एक प्रावधान किया गया कि अन्य राज्यों के लोग उत्तराखंड में सिर्फ 500 वर्ग मीटर तक जमीन खरीद सकते थे,लेकिन 2007 में खंडूरी सरकार न इसे घटाकर 250 वर्ग मीटर कर दिया गया। यानि अन्य राज्यों लोग अगर उत्तराखंड में जमीन खरीदनी है तो वह अधिकतम 250 वर्ग मीटर कृषि जमीन ही खरीद सकता है। लेकिन भाजपा की त्रिवेन्द्र सरकार ने 2018 में उत्तराखंड (उत्तरप्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950)(अनुकूलन एवं उपांतरण आदेश, 2001) में संशोधन कर उक्त कानून में धारा 154 (2) जोड़ते हुए पहाड़ों में भूमि खरीद की अधिकतम सीमा ही खत्म कर दी। तर्क दिया जाता है कि यह फैसला उत्तराखंड सरकार ने प्रदेश में निवेश और उद्योग को बढ़ावा देने के लिए किया था। जिससे यह हुआ कि किसी भी अन्य राज्य का व्यक्ति उत्तराखंड में जितनी चाहे उतनी जमीन खरीद सकता था। इसके पीछे था गुजरात का वाइब्रेंट गुजरात मॉडल, मकसद साफ़ था 1.25 लाख करोड़ के पूंजी निवेश प्रस्तावों के लिए रास्ता साफ़ करना। हाँ इस संसोधन से एक बात जरूर हुई उद्योग तो लगे नहीं मगर मगर जमीनें जरूर चली गईं।
आखिर क्या चाहती है उत्तराखंड की जनता
प्रदेश की जनता चाहती है कि जिस प्रकार हिमाचल प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री रहे डॉक्टर यशवंत सिंह परमार यह कानून लेकर आए कि राज्य से बाहर के लोग धारा 118 के तहत हिमाचल प्रदेश में कृषि भूमि नहीं खरीद सकते। इसके बाद 2007 में धूमल सरकार ने धारा 118 में संशोधन करते हुए उन बाहरी राज्यों के व्यक्तियों को जमीन खरीदने की इजाजत दी, जो इस राज्य में 15 साल से रह रहे हैं। इसके बाद आई सरकार ने इस 15 साल की अवधि को बदल कर 30 साल कर दिया यानी हिमाचल प्रदेश में बाहरी राज्य से आया कोई भी व्यक्ति जमीन नहीं ले सकता। . उत्तराखंड में भी इसी तरह भू कानून की मांग उठ रही है ।