गोविन्द सिंह
उत्तराखंड इस नौ नवम्बर को 25 साल का हो रहा है. राज्य सरकार ने इस अवसर पर पर्यावरण संरक्षण की दिशा में कदम बढ़ाते हुए दिसंबर महीने से बाहर से आने वाले वाहनों पर ग्रीन सेस यानी हरित चुंगी या उपकर लगाने का फैसला किया है. मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने कहा कि उत्तराखंड के 25 वर्ष पूरे होने पर यह हमारी प्रतिबद्धता है कि राज्य को स्वच्छ, हरित और प्रदूषण मुक्त बनाएं। ग्रीन सेस से प्राप्त राजस्व का उपयोग वायु गुणवत्ता सुधार, हरित अवसंरचना और स्मार्ट यातायात प्रबंधन में किया जाएगा। यह सेस फास्ट टैग के माध्यम से लिया जाएगा।
सवाल उठता है कि जब वाहन मालिकों को प्रदूषण के नाम पर पहले ही हर साल पोल्यूशन टैक्स देना होता है तो यह अतिरिक्त बोझ क्यों? बाहर से आने वाले लोग यह सवाल कर रहे हैं कि इससे तो पर्यटन पर बुरा असर पड़ेगा. पर्यटक बेचारा तरह तरह के टैक्स का मारा होता है,उसे पहले ही यात्रा में बहुत सारा खर्च करना होता है, इससे तो उस पर नाहक बोझ पड़ेगा और अंततः पर्यटक आना बंद कर देंगे. इस तरह के सवालों में दम होते हुए भी यह समझना चाहिए कि हिमालयी राज्यों को किस तरह जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग का खामियाजा भुगतना पड़ता है।
आप जानते हैं कि इस वर्ष कितनी मार उत्तराखंड, हिमाचल, जम्मू और कश्मीर और नेपाल को झेलनी पडी है. लगातार आपदा पर आपदा आयी हैं. धराली, थराली में तो बड़ी आपदाएं आईं, लेकिन प्रदेश का शायद ही कोई इलाका छूटा हो, जहां किसी न किसी तरह का संकट न आया हो. उत्तराखंड में हर साल औसतन दो हजार आपदाएं आती हैं. इस बार तो यह आंकड़ा और भी ज्यादा होगा. इससे हजारों करोड़ रुपये का नुक्सान होता है. जान-माल की हानि होती है. बड़ी संख्या में लोग बेघरबार हो जाते हैं. इस बार तो कुछ गाँव-कसबे ही बह गए. तो सोचिए कि कोई भी सरकार कहाँ से इतनी बड़ी रकम की भरपाई कर पाएगी?
बहुत से लोग यह कह देते हैं कि इसके लिए वहाँ की सरकारें जिम्मेदार हैं. लेकिन वे यह नहीं जानते कि धरती में इतनी तरह के और इतने बड़े पैमाने पर परिवर्तन हो रहे हैं कि इन राज्यों का योगदान तो चुटकी भर भी नहीं होगा. बल्कि देखा जाए तो महानगरों में रहने वाले लोग जिस तरह से तमाम पर्यावरण-बिगाडू चीजों का भोग करते हैं, उसका दस प्रतिशत भी पहाड़ के लोग नहीं करते. पहाड़ जहां स्वच्छ हवा और पानी का सृजन करते हैं, वहीं मैदान उनका सेवन करते हैं. हिमालय से निकलने वाली नदियों का फायदा किसे होता है? निश्चय ही मैदानों को. इसलिए यह नहीं सोचना चाहिए कि इन्हीं राज्यों के लोग पर्यावरण संरक्षण में कोताही बरत रहे हैं. बल्कि यह सोचना ज्यादा प्रासंगिक होगा कि मैदान के अति उपभोग का खामियाजा पहाड़ों को झेलना पड़ता है ।
अब रही उत्तराखंड में प्रवेश पर चुंगी लेने की बात तो यह समझ लीजिए कि इससे भी कोई भरपाई होने नहीं जा रही है. अनुमान है कि इससे राज्य को लगभग 100 करोड़ रुपये सालाना की आय होगी. जहां पर्वतीय प्रदेशों को हर बरसात में होने वाली आपदाओं से हजारों करोड़ का नुक्सान होता हो, वहाँ 100 करोड़ से क्या ही हो जायेगा. फिर भी इससे पहाड़ों में पर्यावरण के संरक्षण और साफ़-सफाई का ध्यान रखा जा सकेगा. इससे वायु प्रदूषण कम होगा. हवा की गुणवता सुधरेगी. सरकार उस पैसे को धूल और प्रदूषित वायु को रोक पायेगी. पुराने प्रदूशणकारी वाहनों पर रोक लगेगी. स्वच्छ ईंधन को बढ़ावा मिलेगा. बाहरी राज्यों के आने वाले पर्यटक अपने वाहनों की बजाय सार्वजनिक वाहनों से आने लगेंगे. पर्यटकों में भी पर्यावरण संरक्षण को लेकर जागरूकता आएग।
एक बात और, हर हिमालयी राज्य में इस तरह के टैक्स लिए जाते हैं. हिमाचल में तो शहरों के हिसाब से अलग-अलग तरह के टैक्स हैं. शिमला और मनाली जैसे शहरों में अलग टैक्स हैं तो लाहौल-स्पीती जाने पर और तरह के टैक्स. इसी तरह से कश्मीर में भी अलग टैक्स हैं. मैदानी राज्यों में तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, गोवा, कर्नाटक, केरल, दिल्ली और महाराष्ट्र में ग्रीन टैक्स लिया जाता है, जो उत्तराखंड से काफी ज्यादा है. इसलिए हमें यह समझना होगा कि यदि हमें अपनी धरती को बचाना है, भावी पीढ़ियों को बेहतर धरती सौंप कर जाना है तो पर्यावरण टैक्स तो देना ही होगा. धरती की रक्षा की जिम्मेदारी उन सबकी है, जो इसकी खूबियों का उपभोग करते है।