मतदाताओं की खामोशी धामी के लिए बन सकती है चुनौती !

राकेश डंडरियाल

देहरादून। 19 अप्रैल यानि लोकतंत्र का त्योहार , लोकतंत्र में विस्वास रखने वाले मतदाताओं की आशाओं, अपेक्षाओं और अभिलाषाओं पर खरा उतरने का त्यौहार, जिम्मेवारी के अहसास का त्यौहार। उत्तराखंड में शुक्रवार को लोकसभा की 5 सीटों के लिए मतदान हुआ। उत्तराखंड चुनाव आयोग को आशा थी कि मतदान में युवा , बृद्ध ,महिलाएं बढ़चढ़कर भाग लेंगी और मतदान 75 % तक पहुँच जायेगा , लेकिन ऐसा न हो सका। चुनाव आयोग ने भी अपनी ओर से भरसक प्रयास किये कि ज्यादा से ज्याद मतदाता बूथ तक पहुंचे और मतदान करें।

नेता व उनके अगल बगल झाकने वाले भी पूरी कोशिस करते रहे कि ज्यादा से ज्यादा मतदाताओं को बूथ तक पहुँचाया जाए। लेकिन उत्तराखंड में ऐसा नहीं हुआ , खैर चुनाव शांतिपूर्ण संपन्न हो गए हैं और जाहिर है नतीजे भी आ ही जायेंगे। किसी की हार होगी तो किसी की जीत , लेकिन उस जीत को क्या पूर्ण जीत माना जाएगा जिसमें आधी आवाम अपने प्रत्याशी को वोट ही नहीं देना चाहती है, कही ऐसा तो नहीं कि राजनैतिक पार्टियां उनके ऊपर जबरदस्ती प्रत्याशी थोप रहे हैं। अगर ऐसा है तो जनमानस के पास नोटा का अधिकार है वे उसका प्रयोग कर सकते हैं लेकिन ऐसा हुआ नहीं ।

कही ऐसा तो नहीं कि जिस पार्टी विशेष पर जनता ने जरुरत से अधिक विश्वास किया और उसने मतदाता के सपनों को चकनाचूर कर दिया हो , या फिर ऐसा तो नहीं कि प्रदेश की जनता 10 साल से डबल इंजन को झेलते झेलते थक हार गई है , उसे लोकतंत्र के इस पवित्र त्यौहार पर विश्वास ही नहीं रहा। या फिर उन प्रत्याशियों पर विश्वास नहीं जो चुनाव जीतने के बाद दिल्ली फुर्र हो जाते हैं , और गांव देहात के लिए उनके पास समय ही नहीं मिलता , या फिर वो प्रत्याशी जो अपना फंड तक नहीं खर्च कर पाते हैं सवाल कई हैं ।

असर आज उत्तराखंड के 12 मतदान केंद्रों पर देखने को मिला जहा मतदान केंद्रों पर कही 6 तो कहीं 11 लोगों ने ही मतदान किया। चकराता में आठ, पिथौरागढ़ में तीन,चमोली में दो, पौड़ी में दो मतदान केंद्रों पर लोगों ने चुनाव का बहिष्कार किया।अपर मुख्य निर्वाचन अधिकारी जोगदंडे ने बताया कि सभी स्थानों पर लोगों को समझाने का प्रयास किया गया। उत्तरकाशी के सेकू गांव में 11 मत पड़े। इसमें सभी कर्मचारी शामिल हैं, गांव के किसी व्यक्ति ने मतदान नहीं किया। लोगों के सड़क सहित तमाम मुद्दे हैं, जिसके चलते उन्होंने अपनी नाराजगी जताई है।

प्रदेश की राजधानी का भी हाल कमोवेश यही था यहाँ बूथों पर सन्नाटा पसरा था, छावनी उच्च प्राथमिक विद्यालय क्लेमेनटाउन में मतदाता नहीं पहुंच रहे थे । मसूरी एमजीवीएस हाईस्कूल कफलानी के पोलिंग बूथ 91 में सुबह से छह वोट पड़े। आसपास के ग्रामीणों ने चुनाव का बहिष्कार किया है। पुलिस,प्रशासन लोगों को समझाने में जुटी है, लेकिन मोटीधार,मसराना,बीच कफलानी, लोहारी गढ़,दोक,पटरानी और रतनाली गाड के ग्रामीण वोट डालने को तैयार नहीं। चुनाव ड्यूटी में तैनात कर्मचारी मतदाताओ का इंतजार कर रहे हैं। वहीं थराली के देवराड़ा मतदान केंद्र पर भी अभी तक कोई मतदाता नहीं पहुंचा।

धामी सरकार के लिए खतरे की घंटी

उत्तराखंड में पिछले 7 साल से बीजेपी की सरकार है और आज भी प्रदेश में छह हजार से अधिक गांव ऐसे हैं जहाँ सड़क नहीं पहुंची है। आज भी 84 गांव ऐसे हैं जिनके लोग 10-10 किमी पैदल चलने को मजबूर हैं। प्रदेश में 5828 गांव आज भी शून्य से पांच किमी तक के फासले पर हैं। तो सवाल उठता है क्या मतदाता सड़क को लेकर ही नाराज है? नहीं सच्चाई ये है बल्कि कुछ और है विगत 23 सालों में उत्तराखंड की सभी सरकारें असफल रही हैं और खासकर बीजेपी । बीजेपी ने इन 23 सालों में 4 हजार 889 दिन उत्तराखंड पर राज किया, जबकि कांग्रेस ने 3 हजार 616 दिन राज किया। लेकिन जनता के सपने अधूरे ही रहे। मुख्यमंत्री धामी के लिए आगे का समय चुनौतीपूर्ण होने वाला है, अगर लोकसभा की सभी सीटें जीत भी जाते हैं तो उन्हें इसका क्रेडिट नहीं मिलेगा , क्योँकि इस चुनाव का क्रेडिट प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जाएगा , और कोई सीट हार गए तो ठीकरा उनके सिर पर फूटना निश्चित है। इसलिए धामी को अगले दो साल पूर्ण रूप से जनता को समर्पित होकर देने होंगे , बरना आगे का सफर कुछ कुछ त्रिवेंद्र या खंडूरी की तरह का हो सकता है उन्हें हवा हवाई नहीं जमीनी तौर पर जनता की जरूरतों को समझना होगा। पहाड़ की मूलभूत जरूरतों को समझना होगा।

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